Tuesday, December 8, 2009

एक सफल यात्रा -3

गाड़ी चल निकली थी अपने सफर की ओर ...सबसे परिचय के बाद मुझे पता करना था क़ि हम जा कहाँ रहे हैं जो क़ि मुझे पता ही नही था अब तक । हम जा रहे हैं ...जागेश्वर , एक छोटा सा गावं हिमालय की गोद में ...उत्तरांचल राज्य में । रात का समय था सबको नींद आ रही थी । मैंने अपनी साइड वाली खिड़की खोली और ठंडी ठंडी हवा लेनी चाही पर रात के इस पहर में भी हवा में दिल्ली का प्रदुषण घुला हुआ था ..मैं ज्यादा देर तक खिड़की खुली नही रख सका। गाड़ी में जगजीत सिंह ,नूरजहाँ की गजलें चल रही थी ...सब धीरे धीरे नींद के आगोश में समां गए । सुबह जैसे ही आँख खुली तो लगा क़ि किसी और हो दुनिया में आ गए हैं । जागेश्वर अभी दूर हैं लेकिन बाहर का नजारा देखने लायक था । चारों तरफ़ पहाड़ ,हरियाली और सामने नीला आकाश । बस एक ही वाक्य मुंह से निकला ' वाह ,प्रकृति का कोई जवाब नही !!' चलते चलते रस्ते में एक झरना दिखा..हमने वहां रुक के चाय बना के पी...खाना बनाने का सब सामान हम साथ ले के ही चले थे । प्रकृति की गोद में ,पर्वतों के बीच ,एक झरने के किनारे पर चाय का मजा और ही था ...चाय पीने के बाद फ़िर से हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले ।
रतन जी मुझसे काफ़ी प्रभावित थे । काफ़ी संघर्ष करके मैंने अपनी मंजिल को पाया...पढ़ लिख के ..उस अन्धकार से निकलकर जहाँ सब कोई कुएं के मेंडक बन के जीते हैं सिर्फ़ । वो बच्चों को पहले ही मेरे बारे में बढ़ा चढ़ा के बता चुके थे । फ़िर बातों का दौर शुरू हुआ ...मैंने देखा क़ि ये बच्चे अपनी भविष्य के प्रति कितने जागरूक हैं और सबके मन में बहुत ही आशाएं और सपने हैं । कोई टीचर बनना चाहता है कोई गणितज्ञ ...तो कोई कवि ... इनसे काफ़ी प्रभावित हुआ मैं और उन्हें गाइड किया उन्हें भविष्य के बारे में । कौन कैसे क्या बन सकता है ...टीचर कैसे बना जाएगा ..इंजिनियर कैसे बना जाएगा ।काफ़ी खुश हुए सभी ...इस के साथ साथ उन की फिलोसोफिकल बातें सुन के मैं हैरान ही रह गया ...रतन जी मुस्कुरा रहे थे मेरी हैरानी पर ...वाकई में कुछ पवित्र आत्माएं इस पवित्र,शुद्ध वातावरण में बड़ी ही आदर्शवादी बातों पर वार्तालाप कर रहे थे ।
शाम के वक्त हम जागेश्वर पहुंचे ...ऊँचे ऊँचे चीड के पेड़ों के बीच छोटा सा गाँव है ये । एक छोटे से होटल में रुकना निश्चित किया गया । शाम होने ही वाली थी ... हम सब फ्रेश हुए और सबका मन हुआ क़ि थोड़ा प्रकृति में घूमा जाए । हम निकल गए मस्त जोगियों की तरह जिनका कोई ठिकाना नही होता है । रात धीरे धीरे होने लगी थी और चीड के पेड़ों से चाँदनी छन कर आ रही था ..मंत्रमुग्ध करने वाला दृश्य था । हम काफ़ी देर तक वहां एक झरने के पास बैठे रहे । सबके अन्दर का मासूम इंसान बाहर आने लगा और कवितायेँ बनने लगी ।
उन बच्चों की कवितायेँ सुन के मुझे अब उनकी प्रतिभा का आभास हो गया था । मैं हैरान था क़ि इतने छोटे बच्चे और इतने उच्च विचार !!!
काफी देर वहां बैठने के बाद हम होटल में आए। खाना बनाया और अगले दिन का प्लान करने लगे ।

1 comment:

  1. ांअपके सफर के साथ चलना बहुत अच्छा लग रहा है शुभकामनायें

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