Friday, December 11, 2009

एक सफल यात्रा - अन्तिम भाग

अगले दिन सुबह हमने जागेश्वर के मशहूर मन्दिर देखे । यहाँ पे 9 वीं-13 वीं सदी के 124 मंदिरों का समूह है जो क़ि विश्व भर में प्रसिद्ध हैं । बड़े बड़े चीड के पेड़ों के बीच में ये मन्दिर बड़े ही मनमोहक और आकर्षक लग रहे थे । रतन जी का विचार था क़ि गर्मियों क़ि छुट्टियाँ अबकी बार यहीं पर बिताई जायें । इसीलिए हम किसी सस्ते होटल की तलाश में थे । कुछ होटल वालों से इस बारे में बात की । एक होटल के मेनेजर ने बताया क़ि वो एक नया होटल बनाने वाले हैं और ये बड़ी ही सुंदर जगह पे है जिसके चारों तरफ़ पहाड़ और हरियाली है और बीच में हमारा रेसोर्ट । हमने सोचा क़ि चलो इसको भी देख ही लिया जाए । वो मेनेजर भी चाहते थे क़ि एक बार हम जगह देख लें और फ़िर रहने के बारे में सोचें ।
उन्होंने हमारे साथ एक बुजुर्ग व्यक्ति को भेजा वो जगह दिखाने के लिए । उम्र होगी लगभग 65 साल के आस पास । उन्हें मैंने अपने साथ वाली सीट पे बिठाया गाड़ी में और हम चल दिए अपने इस गाइड के साथ एक नए सफर पर । थोड़ी ही देर में उन बुजुर्ग को खांसी होने लगी , उनकी तबियत काफ़ी ख़राब लग रही थी । मैंने उन्हें पानी पिलाया । मेरा मन हुआ उनके बारे में जानने का ...मैंने उनका नाम पूछा , उनका नाम था - किशनदास ।
उनके घर के बारे में थोड़ी और जानकारी ली तो पता लगा क़ि उनके ४ लड़के हैं और चारों अलग रहते हैं । वो और उनकी बूढी पत्नी अकेले रहते हैं । मेरा हर्दय पिघलने लगा था उनकी हालात देख के । इस उम्र में भी इन्हे काम करने पड़ रहा है । ऊपर से तबियत ख़राब ... मैंने बोला क़ि दवाई क्यूँ नही लेते हो ..उत्तर मिला क़ि बाबू पैसे की दिक्कत है । मुझे बाबु कहने पर मैंने ख़ुद को बड़ा ही छोटा महसूस किया और कुछ न कह पाया उस समय ।
लगभग आधा घंटा गाड़ी में चलने के बाद किशन दास ने बोला क़ि गाड़ी यहीं रोक दीजिये आगे हमे पैदल ही जाना होगा । हम सब गाड़ी से उतरे और ड्राईवर को गाड़ी के पास छोड़ कर सारे किशन दास के साथ साथ चलने लगे
आगे ढलान का रास्ता था । किशन दास का चलना भी बड़ी मुश्किल लग रहा था ,वो बड़ी ही हिम्मत करके आगे बढ़ रहे थे । मैंने उनका हाथ पकड़ा और उनके साथ साथ चलने लगा । उनका हाथ पकड़ के सहारा देने में मैं बहुत ही अच्छा महसूस कर रहा था । हम उस जगह पे पहुंचे और रेसोर्ट को देखा । बहुत ही सुंदर जगह पे बनाया हुआ था । जैसे ही ऊपर चारों तरफ़ देखा तो सिर्फ़ पहाड़ और हरियाली ही दिखाई दी । मन कर रहा था क़ि सदा के लिए यहीं प्रकृति की गोद में बस जायें ।
अब वापसी का समय था । मैंने किशन दास का हाथ पकड़ा और उनकी मदद करने लगा । अब उन्हें और ज्यादा दिक्कत हो रही थी क्यूँक़ि ऊपर चढ़ाई काफ़ी मुश्किल थी । एक हाथ से उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और दूसरा हाथ मेरे काँधे पे रखा । बड़ी ही मुश्किल से हम ऊपर पहुंचे गाड़ी तक । मैंने देखा क़ि किशन दास की हालत और ख़राब होती जा रही थी । पता नही मुझे क्या हुआ अचानक और मैंने उस बुजुर्ग किशन दास को गले से लगा लिया और कहा "i luv you. " । मैंने उस समय जो शान्ति अपने दिल में महसूस क़ि वो आज तक की जिंदगी में कभी महसूस नही की थी । वो पल मानों वहीँ ठहर गया हो ...वो असीम शान्ति ...वो सकून ...किशन दास हैरान था और उसकी आंखों से दो आंसू टपक गए । मुझे मेरा जीवन और मेरी ये यात्रा सफल लगने लगी थी । थोड़ी देर वहां विश्राम करने के बाद हमने किशनदास के घर को भी देखा । उसे उसके घर पे ही छोड़ा और मैंने अपना पर्स निकाला और उसमें जितने भी रुपये थे ,बैगर गिने ही किशन दास को दे दिए । फ़िर उससे विदा ले कर हम अपने होटल में आए ।
मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ गई थी :
"किसी के पावं का काँटा
निकाल के तो देखो ,
किसी रोते हुए चेहरे को
हंसा कर के तो देखो ,
अपने से पहले किसी भूखे को
खिला कर के तो देखो ,
किसी हारे थके साथी को
गले से लगा के तो देखो ,
तुम्हारे दिल का दर्द भी कम होगा
किसी के दर्द को कम करके तो देखो ।"
सभी हैरान थे और मैं बस मुस्कुरा रहा था । होटल पहुँच के हम वापसी की तैय्यारी करने लगे थे ।

Tuesday, December 8, 2009

एक सफल यात्रा -3

गाड़ी चल निकली थी अपने सफर की ओर ...सबसे परिचय के बाद मुझे पता करना था क़ि हम जा कहाँ रहे हैं जो क़ि मुझे पता ही नही था अब तक । हम जा रहे हैं ...जागेश्वर , एक छोटा सा गावं हिमालय की गोद में ...उत्तरांचल राज्य में । रात का समय था सबको नींद आ रही थी । मैंने अपनी साइड वाली खिड़की खोली और ठंडी ठंडी हवा लेनी चाही पर रात के इस पहर में भी हवा में दिल्ली का प्रदुषण घुला हुआ था ..मैं ज्यादा देर तक खिड़की खुली नही रख सका। गाड़ी में जगजीत सिंह ,नूरजहाँ की गजलें चल रही थी ...सब धीरे धीरे नींद के आगोश में समां गए । सुबह जैसे ही आँख खुली तो लगा क़ि किसी और हो दुनिया में आ गए हैं । जागेश्वर अभी दूर हैं लेकिन बाहर का नजारा देखने लायक था । चारों तरफ़ पहाड़ ,हरियाली और सामने नीला आकाश । बस एक ही वाक्य मुंह से निकला ' वाह ,प्रकृति का कोई जवाब नही !!' चलते चलते रस्ते में एक झरना दिखा..हमने वहां रुक के चाय बना के पी...खाना बनाने का सब सामान हम साथ ले के ही चले थे । प्रकृति की गोद में ,पर्वतों के बीच ,एक झरने के किनारे पर चाय का मजा और ही था ...चाय पीने के बाद फ़िर से हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले ।
रतन जी मुझसे काफ़ी प्रभावित थे । काफ़ी संघर्ष करके मैंने अपनी मंजिल को पाया...पढ़ लिख के ..उस अन्धकार से निकलकर जहाँ सब कोई कुएं के मेंडक बन के जीते हैं सिर्फ़ । वो बच्चों को पहले ही मेरे बारे में बढ़ा चढ़ा के बता चुके थे । फ़िर बातों का दौर शुरू हुआ ...मैंने देखा क़ि ये बच्चे अपनी भविष्य के प्रति कितने जागरूक हैं और सबके मन में बहुत ही आशाएं और सपने हैं । कोई टीचर बनना चाहता है कोई गणितज्ञ ...तो कोई कवि ... इनसे काफ़ी प्रभावित हुआ मैं और उन्हें गाइड किया उन्हें भविष्य के बारे में । कौन कैसे क्या बन सकता है ...टीचर कैसे बना जाएगा ..इंजिनियर कैसे बना जाएगा ।काफ़ी खुश हुए सभी ...इस के साथ साथ उन की फिलोसोफिकल बातें सुन के मैं हैरान ही रह गया ...रतन जी मुस्कुरा रहे थे मेरी हैरानी पर ...वाकई में कुछ पवित्र आत्माएं इस पवित्र,शुद्ध वातावरण में बड़ी ही आदर्शवादी बातों पर वार्तालाप कर रहे थे ।
शाम के वक्त हम जागेश्वर पहुंचे ...ऊँचे ऊँचे चीड के पेड़ों के बीच छोटा सा गाँव है ये । एक छोटे से होटल में रुकना निश्चित किया गया । शाम होने ही वाली थी ... हम सब फ्रेश हुए और सबका मन हुआ क़ि थोड़ा प्रकृति में घूमा जाए । हम निकल गए मस्त जोगियों की तरह जिनका कोई ठिकाना नही होता है । रात धीरे धीरे होने लगी थी और चीड के पेड़ों से चाँदनी छन कर आ रही था ..मंत्रमुग्ध करने वाला दृश्य था । हम काफ़ी देर तक वहां एक झरने के पास बैठे रहे । सबके अन्दर का मासूम इंसान बाहर आने लगा और कवितायेँ बनने लगी ।
उन बच्चों की कवितायेँ सुन के मुझे अब उनकी प्रतिभा का आभास हो गया था । मैं हैरान था क़ि इतने छोटे बच्चे और इतने उच्च विचार !!!
काफी देर वहां बैठने के बाद हम होटल में आए। खाना बनाया और अगले दिन का प्लान करने लगे ।

Friday, December 4, 2009

एक सफल यात्रा - 2

थोड़ी देर बाद दोबारा से फ़ोन बजा , काम के हालात कुछ सुधरे हुए लगे और मुझे अब थोड़ा सा ध्यान भी आया क़ि फ़ोन बज रहा है । पर अब भी मुझे नही लग रहा था कि मै जा पाउँगा । फ़ोन उठाया तो रतन जी ने दूसरी तरफ से कहा 'क्या लग रहा है ...चल पाओगे ' । उत्तर में मैंने कहा कि कोशिश तो पूरी कर रहा हूँ पर अभी तक फ़ाइनल नही बता सकता हूँ कि चल पाउँगा या नही । रतन जी ने पूछा 'आप एक बात बताइए, आप अगर जाना चाहते हैं तो हम रात भर आपका इंतजार कर सकते हैं , ये मैं पहले भी कह चुका हूँ, अगर आपका मन है और लगता है कि काम १२-१ बजे तक ख़तम हो जाएगा तो भी हम तैयार हैं ' । अब वो इतने प्यार से कह रहे थे कि मैं उन्हें मना नही कर पा रहा था और मैं जाना भी चाहता था ,यह भी सच है । अबकी बार विश्वास भरे शब्दों में उन्हें कहा कि बताता हूँ थोड़ी देर में , क्यूंकि मुझे लग रहा था कि मैं काम को ख़तम कर ही लूँगा १-२ घंटे में । कंप्यूटर के कोने में घड़ी में टाइम देखा तो 8.45 बज गए थे ।
मेरे साथ ही मेरा एक साथी भी था ..मेरे काम करने के बाद उसे देखना था कि काम सही हुआ है या नही । वो टेस्टिंग टीम में है और इंतजार में है कि कब उसकी बारी आए , बड़ी मुश्किल से उसे भी रोके रखा था मैंने ...आख़िरकार ३ दिन की मेहनत रंग लाइ और मेरे मुंह से अनायास ही निकला 'i have done it ..Amit...be ready for your part of work' .. मैं तो ऐसे बोला जैसे कि आइन्स्टीन ने 'यूरेका' शब्द बोला था :) । अब मेरे हिस्से का तो काम लगभग ख़त्म ही हो गया था पर अब देखना था कि अमित जी क्या करते हैं ...
मैंने रतन जी को फ़ोन करके संकेत दिया कि जाना फ़ाइनल हो सकता है , अभी आपको बताता हूँ थोड़ी देर में । वो भी काफ़ी खुश हुए और बोले कि इंतजार में हैं आपके फ़ोन के । अमित भी काम में लगा हुआ था और हम दोनों ने मिलकर लगभग ११ बजे सब कुछ समाप्त कर दिया । मैंने अमित को धन्यवाद बोला और साथ में ही रतन जी को कॉल करके ऑफिस आने के लिए बोल दिया । वहां से ऑफिस का रास्ता लगभग १-१.५ घंटे का था तो वो जल्दी ही घर से निकल लिए । अब मैं ऑफिस में उनके आने का इंतजार कर रहा था और उन्हें वहां तक पहुँचने का रास्ता भी बता रहा था फ़ोन पर ही ।
अभी तक मुझे ये नही पता था कि हम किधर जा रहे हैं ,फ़िर भी मन में एक उत्साह था और इंतजार था अगले ३ दिनों का । लगभग १२.३० पर वो लोग मेरे ऑफिस पहुंचे । मुझे अब तक नही पता था कि इस यात्रा में कौन कौन शामिल है । गाड़ी में बैठे तो रतन जी ने सबसे परिचय करवाया । प्रीती ,ज्योति,नीरू और सुजाता ..ये चारों रतन जी के विधार्थी हैं स्कूल में ...बड़े ही होनहार और छोटी ही उम्र में काव्य प्रतिभा के धनी हैं । उन सबको मेरे बारे में वो पहले ही बता चुके थे , उनके अलावा रतन जी ,ड्राईवर और मैं । काफ़ी हैरान हुआ मैं कि कैसी होने वाली है ये यात्रा ...इन बच्चों के साथ जिन्होंने अभी सिर्फ़ मेट्रिक के इम्तिहान ही दिए हैं ।
क्रमश :

Monday, November 30, 2009

एक सफल यात्रा - 1

शहर और नौकरी की दौड़ भाग से कुछ दिन आराम लेने की सूझी , पर ऑफिस के काम में इतना व्यस्त होने के कारण लग नही रहा था कि ३-४ दिन की छुट्टी मिल पायेगी । शुकवार को काम की deadline थी । शुक्रवार तक काम को किसी तरह ख़तम करना था तो सूझी की अगर वीरवार तक ही अगर काम ख़तम कर दें तो ....तो कुछ बात बन सकती है शायद। बॉस से बात की ...हमेशा की तरह ना नुकर की उन्होंने॥
' अब तुम सीनियर बन गए हो और तुम पर कुछ जिम्मेदारियां हैं , तुम्हे मालूम है कि शुक्रवार की deadline है ,'
मुझे तो यह पहले से ही ज्ञात था कि मुझे यही सुनने को मिलेगा ,पर मैं भी अपनी तरफ़ से पूरी तरह तैयार हो के आया था ...
"बॉस ! अगर काम वीरवार को रात को ही ख़तम हो जाए तो ?" मैंने कहा ॥
अब उनकी बारी थी , कंप्यूटर से नजर हटाकर मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुराये ..."हम्म... उस विषय में सोचा जा सकता है , अगर वीरवार रात सब कुछ अच्छे से ख़तम हो जाए तो तुम जा सकते हो ..., लेकिन धयान रहे पूरा काम अच्छे तरीके से होना चाहिए "
मैं तो इसके लिए तैयार ही था ..." बिल्कुल बॉस , आप फिक्र मत कीजिये, मैं पूरा काम अच्छे से करके ही जाऊंगा "
२ दिन थे और काम बहुत सारा ...पर जाने की सारी तैयारियां हो चुकी थी ... रतन जी ने सारी तैयारियां कर रखीथी । अलग ही अनुभव होगा शायद जिंदगी का इस यात्रा से , ऐसा कुछ लग रहा था । मैं पूरे जोर शोर से काम में लग गया क्यूंकि उन्हें वादा कर चुका था साथ जाने का । पर मैंने उन्हें बोला कि मैं फ़ाइनल वीरवार शाम को ही कर पाउँगा ।
वीरवार का दिन भी आ ही गया । काम चल ही रहा था , दिन में ११ बजे के आस पास रतन जी का फ़ोन आया कि क्या हालत हैं चलने के ...मैं बड़ी ही उहापोह कि स्थिति में था क्योंकि काम अभी तक पूरा नही हो रहा था और मुझे लग रहा था कि शायद मैं न जा पाऊं । मैंने उन्हें कहा कि अभी तक के हालात से तो लग रहा है कि नही जा सकूँगा। उन्होंने कहा कि आप अपना काम आराम से कीजिये अगर रात १२ बजे तक भी हो जाएगा तो हम आपको ऑफिस से ही pick कर लेंगे ।
'हम्म देखते हैं ..." कहा और बैगर लंच किए ही मैं काम में ही लगा रहा ।
शाम को ६ बज गए ...दोबारा फ़ोन की घंटी बजी । रतन जी की कॉल थी ...काम में इतना मगन था कि फ़ोन नही उठा पाया और काम में ही लगा रहा ...
क्रमश :

Monday, October 26, 2009

संवेदना -4

ऑफिस पहुँचने के बाद उसके मन में वही सब चल रहा, उसने उन बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने का मन बनाया उसके दोस्त योगेश ने भांप लिया था कि उमंग के मन में कुछ दिन से उथल पुथल मची हुई है वह उसके पास पहुँचा और पूछा कि क्या बात है ? उमंग ने उसे सारी बात बताई और बताया कि उसने मन बना लिया है कि वो उन बच्चों में से जितने को हो सकता है स्कूल में दाखिल करवाएगा। 'वाह !!! यह तो बहुत ही उम्दा ख्याल है , मैं भी तुम्हारा इस काम में जरुर साथ दूंगा । ' योगेश ने कहा

'
ऐसा करते हैं कि कल ऑफिस आते वक्त तुम गवर्नमेंट स्कूल में दाखिले के बारे में पूछताछ करके आना ,फ़िर हम रविवार को उन बच्चों के माता पिता से मिलेंगे और उन्हें शिक्षा के महत्त्व के बारे में बताएँगे ,देखते हैं कितने लोग तैयार होते हैं अपने बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाने के लिए ??? क्या ख्याल है तेरा ' उमंग ने कहा

'
हम्म ... काफ़ी अच्छा विचार है ,ठीक है, मैं कला पता करके आता हूँ ' योगेश बोला

शाम को उमंग फ़िर वहीँ से गुजर रहा था आज ऑफिस से जल्दी निकल आया था ,शाम का सूरज ढलने ही वाला था आज उसने उन बच्चों से बात करने का मन बनाया था उसने देखा कि बच्चे वहीँ खेल रहे हैं , उसने मोटरसाईकिल खड़ी रोकी और उन बच्चों की तरफ़ चल पड़ा जैसे ही वो उन बच्चो के पास पहुँचा ,सब ही बड़ी उत्सुकता भरी नजरों से उसकी तरफ़ देख रहे थे ... अनगिनत प्रशन थे उनकी छोटी छोटी आंखों में ...

उमंग ने एक बच्ची से पुछा ,' क्या नाम है तुम्हारा ?'
'
खुशी ...'उसने धीरे से कहा
मन ही मन उसने सोचा कि नाम खुशी और इस माहौल में ....कैसी विडंबना है ,हमारे समाज की ....
तब तक उसे सब बच्चों ने घेर लिया था , चारों तरफ़ सब बच्चे खड़े हो गए थे ...
'
स्कूल जाती हो क्या तुम ??' उमंग ने पुछा
'
नही ,मैं स्कूल नही जाती । ' खुशी ने कहा
'
स्कूल जाना है ??' उमंग बोला
'
हाँ , मेरा मन तो बहुत करता है पर बापू स्कूल नही जाने देता ' खुशी ने नीचे सिर झुका कर बोला
'
क्यों ??'
'
कहता है कि क्या करेगी स्कूल जा के , मेरे पास पैसे भी नही हैं स्कूल की फीस के लिए ..'खुशी ने कहा
'
मैं तुम्हे स्कूल में दाखिल करवाऊ तो जाओगी स्कूल में ??'उमंग ने कहा
'
हाँ हाँ ,पर बापू.....??खुशी ने हिचकिचाते हुए कहा
'
तुम्हारे बापू से मैं बात करता हूँ , कहाँ रहती हो तुम ....' उमंग ने पुछा

उसने सामने ही एक झुग्गी की तरफ़ इशारा किया उमंग ने उससे रविवार को मिलने को कहा , बोला कि रविवार को मैं तुम्हारे घर के तुम्हारे माँ बापू दोनों से बात करूँगा
उसने बाकि सब बच्चों से पुछा कि क्या उन्हें भी स्कूल जाना है ...तो सबने बड़े ही खुश हो कर हामी भर दी ...
उसके दिल को थोड़ा सा शकुन मिला ,उसके बाद खुशी और दूसरे बच्चों को बाय बाय कहके वो अपने घर की ओर चल दिया

अगले दिन ऑफिस पहुँचते ही योगेश उसके पास पहुँचा और स्कूल की सब औपचारिकताएं समझाई ,बहुत ही नाम मात्र फीस में सब बच्चों का दाखिला हो सकता था ,हमारे शिक्षा प्रणाली का यह तो फायदा है कि सरकारी स्कूल में आप नाम मात्र फीस में पढ़ सकते हो ...फ़िर यह सब आपके और आपके माहौल पे निर्भर करता है कि आप क्या बनते हो ...अब्दुल कलाम भी वहीँ से बनते हैं और एक साधारण आदमी ,जो जिंदगी भर दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में ही गुजर देता है ,वो भी वहीँ से निकलता है दोनों ने ख़ुद से ही सारा खर्चा करने की ठानी , यह कुछ ज्यादा नही था अगर १५ बच्चे भी हों तो उनका खर्च मात्र १२००-१३०० रुपये होता ....उसने योगेश को कल शाम वाली बात भी बताई कि उसने बच्चों से बात की और रविवार के प्रोग्राम के बारे में भी बताया ....योगेश खुशी खुशी तैयार हो गया

दो दिन बाद ही रविवार का दिन गया , योगेश और उमंग दोनों ही उस झुग्गी झोपडी वाले इलाके में पहुंचे खुशी ने जैसे ही उमंग को देखा तो भाग के उनके पास आई और अपने दोनों छोटे छोटे हाथों को जोड़ के बोली ...'नमस्ते भइया ...' योगेश और उमंग दोनों ही बहुत खुशी हुए और मुस्कुराने से ख़ुद को रोक सके ...फ़िर खुशी के साथ साथ वो उनके घर की तरफ़ चल पड़े ...आगे आगे वो चल रहे थे और पीछे पीछे बच्चे ....
खुशी के पिता जी घर के बाहर ही खड़े थे ...इतने बच्चों को आते देख वो हैरान रह गए , वहां पहुँच कर उमंग ने अपने बारे में थोड़ा बताया और उसे पढ़ाई के महत्त्व के बारे में समझाया ,उमंग ने नोट किया कि वो काफ़ी धयान से बातें सुन रहा है , फ़िर पूछा कि खुशी को स्कूल क्यों नही भेजना चाहते हो ??
खुशी के पापा ने कहा कि मैं तो स्कूल भेजना ही चाहता हूँ पर मेरी आमदनी ही इतनी नही है कि मैं इसका खर्चा सहन कर सकूँ, मैं फेरी लगता हूँ और बड़ी मुश्किल से ही घर का खर्चा चला पाता हूँ ...खुशी के दो छोटे भाई बहन भी है ....
उमंग ने कहा कि अगर हम खुशी का दाखिला दिला दें तो क्या तुम उसे स्कूल जाने दोगे ...
'
भाई साहब , अँधा क्या चाहते दो आँखें बस ....मैं तो खुशी खुशी इसको स्कूल जाने दूंगा ...'
तब तक वहां काफ़ी भीड़ लग चुकी थी, सब लोग उमंग और योगेश की बातें धयान से सुन रहे थे अपनी बात पूरी होने पर योगेश ने कहा की देखिये , यहाँ लगभग अभी १०-१२ बच्चे हैं ,अगर उनके माता पिता भी यहीं हैं और उनके बच्चों की पढ़ाई को लेकर को दिक्कत है तो वो हमसे इस बारे में बात कर सकता है खुशी के पिता तो तैयार हो ही गए थे , फ़िर लगभग उन्होंने ११ बच्चों के माता पिता से बात की जो अपने बच्चो को स्कूल तो भेजना चाहते हैं पर पैसे की तंगी का कारण नही भेज सकते ...कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो बात ही नही करना चाहते थे ...
फ़िर भी कुल मिलकर उन्होंने ११ बच्चों को वहां से चुना और कल सुबह तैयार रहने को कहा ...अगली सुबह योगेश और उमंग दोनों ही सब बच्चों को लेकर स्कूल पहुंचे और मुखाध्यापक को सारी कहानी सुने उसने उन दोनों के कार्य की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि इन बच्चों को वर्दी और किताबें स्कूल से ही दिलवा देंगे... योगेश और उमंग के लिए तो यह सोने पे सुहागा वाली बात थी...उन्होंने मुखयाधापक का बहुत धन्यवाद दिया और बच्चों को स्कूल छोड़ के अपने ऑफिस की राह पे चले ...


अगली सुबह जब उमंग दोबारा वहां से गुजरा तो उसे कोई बच्चा वहां से खेलता हुआ नही दिखा , थोडी दूर जा के देखा तो खुशी ,स्कूल का बैग लिए स्कूल जा रही थी , उमंग को देख के खुशी ने दूर से ही हाथ हिलाया ...जैसे ही मन ही मन वो छोटा सा बचपन उसे धन्यवाद दे रहा हो ...उसने भी हाथ हिलाया और मुस्कुरा दिया

आज उसे बहुत ही अच्छा लग रहा था और अपने मन के किसी कोने में असीम संतुष्टि और शान्ति को महसूस कर रहा था , मन झूम के गा उठा था ..'अपने लिए जिए तो क्या जिए तू जी दिल जमाने के लिए ...' :)

"किसी अंधेरे कोने को
रोशन करने की आरजू है ...
किसी रोते हुए बच्चे को
हंसाने की आरजू है ...
किसी प्यासे पथिक को
पानी पिलाने की आरजू है ....."

इन पंक्तियों के अर्थ को समझ कर एक पूर्णता के एहसास वो अच्छे से महसूस कर रहा था आज ....


'समाप्त '

Tuesday, October 20, 2009

संवेदना - 3

एक नई सुबह आई , जो की रोज नई ही होती है पर इंसां पुराना ही होता है , लेकिन शायद उमंग के लिए भी यह सुबह कुछ अलग ही थी । ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था तो रात का सपना उसे याद आया , उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि क्या उसने वाकई ऐसा ही सपना देखा है । सपने में उसने देखा कि कोई उसी गन्दी बस्ती से गुजर रहा है जिससे वह रोज गुजरता है ,वही सारा सब कुछ उसे दिखाई दिया जो वह हमेशा ही देखता है ..सुबह शाम । कुछ धुंधली धुंधली सी बातें याद आ रही हैं सपने की । वही बच्चे दिख रहे हैं ..वहां से जाता हुआ एक नौजवान दिख रहा है ...कुछ देर वहां रुका कुछ सोचा और चला गया । कुछ दिन बाद अख़बार में ,न्यूज चैनल्स पे एक ही न्यूज़ चल रही है कि कंपनी कुछ कारीगरों ने किसी तरह कंपनी से कुछ पैसों की हेराफेरी की और वो पैसे उस लड़के के अकाउंट में मिलते हैं पर अगले ही दिन वो पैसे नही होते हैं ....पर साथ में ही एक घटना और घटित होती है ..उस झुग्गी झोपडी के पास एक स्कूल बना हुआ है और वो बच्चे वहां पे पढ़ रहे हैं । तो सब जगह यही ख़बर है कि इन लोगों को दण्डित किया जाना चाहिए ??? क्यूंकि पैसा ऐसे काम के लिए खर्च किया गया है जिसका कोई भी मोल नही है ....इतना ही सपना उसे धयान है अभी ,उसके आगे क्या हुआ उसे याद ही नही आ रहा है । वो ख़ुद भी इसी बात पे सोच रहा है अगर ऐसा हकीकत में हो तो कैसा हो ??
सपने से बाहर आया तो उसे ऑफिस जाने की सूझी । पास रखे रेडियो में जगजीत की गजल चल रही थी , जिसके बोल कुछ इस तरह थे ...'हर एक मोड़ पे हम ग़मों को सजा दें ,चलों जिंदगी को मोहब्बत बना दें ...' इसे सुन कर उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट आ गई । काफ़ी अच्छा महसूस करने लगा , ऑफिस की तरफ़ रस्ते में फ़िर उन बच्चों को देखा ...मन में आया कि कुछ करना ही पड़ेगा वरना मेरे इस मन को चैन नही पड़ने वाला है और उसके सपने ने उसे काफ़ी अच्छा उपाय भी बता दिया था कि उसे अब क्या करना है ...पर यह सोचना था कि कैसे करना है ???

Wednesday, October 14, 2009

संवेदना -2


विचारों की इसी उलझन में ऑफिस पहुँचा मन आज कहीं और ही घूम रहा था, रह रह के ख्याल उन्ही अधनंगे बच्चों की तरफ़ चला जाता ऑफिस में जा के काम की शुरुवात की तो धीरे धीरे सब कुछ दैनिक क्रिया की तरह ही होने लगा, मन थोड़ा सा काम में लगाया वह काम बड़ी ही निष्ठा से करता ,कभी भी किसी को शिकायत का मौका नही देता था काम करते करते पता नही चला की दिन कब निकल गया शाम ढलने का समय हुआ और उसे घर जाने की सूझी, पर अब दोबारा से मन वहीँ पहुँच रहा था रेड लाइट पार होने के बाद जैसे ही वह उस झुग्गी वाले इलाके में पहुँचा ,सुबह वाला दृश्य उसकी आंखों के सामने घूम रहा था। शाम ढल चुकी थी और धीरे धीरे सारा शहर अंधेरे को कृत्रिम रोशनी से दूर करने लगा था , जबकि अपने मन में इंसां उजाला करने की सोच भी नही पाता है झुग्गियों में भी कहीं कहीं लाइट थी और कहीं मोमबत्ती का उजाला दिख रहा था ,अभी शायद वो सुबह वाले बच्चे कुछ खा पी के सोने की कोशिश में होंगे। पता नही खाना भी नसीब होता होगा या नही उन्हें

घर पहुँचा ,खाना खाया और सोने की तैय्यारी करने लगा सहसा ही उसकी निगाह मक्सिम गोर्की की 'मेरा बचपन' किताब पर पड़ी जो की मेज पर रखी थी आजकल वह पढ़ रहा था इसे किताब की अब तक की कहानी उसकी आंखों के सामने घूमने लगी
कितना संघर्ष, कितनी मुश्किलें ....उन्होंने जन्म दिया एक महान साहित्यकार ,फिलोसोफेर मक्सिम गोर्की को उन बच्चों में से किसी में यह प्रतिभा भी हो सकती है ...कोई मक्सिम गोर्की उनमे भी हो सकता है
क्या ऐसा सचमुच हो सकता है क्या !!! अब दिमाग के घोडे दौड़ने लगे, सोचने लगा की कैसे उन बच्चों की जिंदगी संवारी जाए पर कुछ भी उपाय ध्यान में नही रहा था , सबसे पहले तो उनके माता पिता से बात करनी पड़ेगी,उन्हें पढ़ाई के महत्त्व के बारे में बताना पड़ेगा ...कोई समझ पायेगा क्या वहां ??? कोई सुनेगा क्या उसकी बात ??
विचारों के इसी मायाजाल में पता नही उसे कब नींद गई ....एक नई सुबह के इंतजार में ,वो नींद की गोद में सो गया ...
क्रमश : ...

Thursday, October 8, 2009

संवेदना--1

रोज की तरह उमंग अपनी मोटरसाईकिल से अपनी कंपनी की तरफ़ जा रहा था । सुबह सुबह उस गन्दी बस्ती से गुजरना उसे कभी भी अच्छा नही लगता था । कितना गन्दगी फैली है चारों तरफ़ । उफ़ ,कैसे जीते हैं यहाँ लोग , मन ही मन उसने सोचा । वह एक multinational कंपनी में कार्यरत है । बहुत ही मेहनती ,अपने उसूलों पर जिंदगी जीने वाला इंसान । बड़ी मेहनत से पढ़ाई की और यहाँ तक पहुँचा । घर वालों को बड़ा गर्व है उस पर, सब दोस्त ,रिश्तेदार ,पड़ोसी उसकी तारीफ़ करते नही थकते हैं ।
लखनऊ के उद्योग विहार से पहले की इस झुग्गी झोपडी बस्ती से वह रोज गुजरता था । जैसे ही झुग्गियां ख़तम हुई उसका धयान अनायास ही कुछ बच्चों पर पडा । शायद वे झुग्गियों की रहने वाले ही थे । पता नही उसे क्या सूझी , मोटरसाइकिल रोकी और उन्हें देखने लगा । ये १२-१५ मैले कुचैले कपड़े पहने झुग्गियों की बच्चे ही थे , मन में अन्दर ही अन्दर पता नही किसके साथ जूझ रहा था , शायद वह ख़ुद ही ख़ुद के साथ बातें कर रहा था ।
सोचा इन सबने क्या कसूर किया है जो यह सब ऐसी जिंदगी जी रहे हैं ... क्या इन्हे स्कूल जाने का हक नही है ??? क्या इन्हे अच्छे अच्छे नए नए कपड़े नही चाहियें क्या ?? क्या भविष्य है इनका ?? ऐसे अनगिनत ही सवाल उसके जहन घूम रहे थे , जिनका उत्तर शायद उसके पास नही था ... अनायास ही ध्यान घड़ी पर गया और देखा की ऑफिस का टाइम हो रहा है , उसने मोटरसाईकिल स्टार्ट की और चल दिया अपने ऑफिस की तरफ़, रोज की तरह ।
पर आज मन में कुछ और ही चल रहा था । एक तरफ़ तो हम भारत को एक विकसित देश बनाना चाह रहे हैं और दूसरी ओर यह सब जो उसने आज देखा ...भारत का भविष्य मैले कुचैले कपड़े पहने !!! अजीब उहापोह की स्थिति थी आज मन की , जो उसने आज तक नही सोचा था ...आज अचानक कैसे उन बच्चों पर धयान चला गया ।
थोड़ा आगे जा के रेड लाइट पे उसने मोटर साइकिल रोकी । साथ में खड़ी गाड़ी की तरफ़ ऐसे ही निगाह चली गई । उसने देखा कि
एक मोटी औरत बैठी अपने कुत्ते को बिस्कुट खिला रही थी ... अपने आप को मुस्कुराने से नही रोक पाया और उसके मुंह से निकल ही गया ..'मेरा भारत महान' ...
क्रमश ...

To be continued ...