Friday, December 11, 2009

एक सफल यात्रा - अन्तिम भाग

अगले दिन सुबह हमने जागेश्वर के मशहूर मन्दिर देखे । यहाँ पे 9 वीं-13 वीं सदी के 124 मंदिरों का समूह है जो क़ि विश्व भर में प्रसिद्ध हैं । बड़े बड़े चीड के पेड़ों के बीच में ये मन्दिर बड़े ही मनमोहक और आकर्षक लग रहे थे । रतन जी का विचार था क़ि गर्मियों क़ि छुट्टियाँ अबकी बार यहीं पर बिताई जायें । इसीलिए हम किसी सस्ते होटल की तलाश में थे । कुछ होटल वालों से इस बारे में बात की । एक होटल के मेनेजर ने बताया क़ि वो एक नया होटल बनाने वाले हैं और ये बड़ी ही सुंदर जगह पे है जिसके चारों तरफ़ पहाड़ और हरियाली है और बीच में हमारा रेसोर्ट । हमने सोचा क़ि चलो इसको भी देख ही लिया जाए । वो मेनेजर भी चाहते थे क़ि एक बार हम जगह देख लें और फ़िर रहने के बारे में सोचें ।
उन्होंने हमारे साथ एक बुजुर्ग व्यक्ति को भेजा वो जगह दिखाने के लिए । उम्र होगी लगभग 65 साल के आस पास । उन्हें मैंने अपने साथ वाली सीट पे बिठाया गाड़ी में और हम चल दिए अपने इस गाइड के साथ एक नए सफर पर । थोड़ी ही देर में उन बुजुर्ग को खांसी होने लगी , उनकी तबियत काफ़ी ख़राब लग रही थी । मैंने उन्हें पानी पिलाया । मेरा मन हुआ उनके बारे में जानने का ...मैंने उनका नाम पूछा , उनका नाम था - किशनदास ।
उनके घर के बारे में थोड़ी और जानकारी ली तो पता लगा क़ि उनके ४ लड़के हैं और चारों अलग रहते हैं । वो और उनकी बूढी पत्नी अकेले रहते हैं । मेरा हर्दय पिघलने लगा था उनकी हालात देख के । इस उम्र में भी इन्हे काम करने पड़ रहा है । ऊपर से तबियत ख़राब ... मैंने बोला क़ि दवाई क्यूँ नही लेते हो ..उत्तर मिला क़ि बाबू पैसे की दिक्कत है । मुझे बाबु कहने पर मैंने ख़ुद को बड़ा ही छोटा महसूस किया और कुछ न कह पाया उस समय ।
लगभग आधा घंटा गाड़ी में चलने के बाद किशन दास ने बोला क़ि गाड़ी यहीं रोक दीजिये आगे हमे पैदल ही जाना होगा । हम सब गाड़ी से उतरे और ड्राईवर को गाड़ी के पास छोड़ कर सारे किशन दास के साथ साथ चलने लगे
आगे ढलान का रास्ता था । किशन दास का चलना भी बड़ी मुश्किल लग रहा था ,वो बड़ी ही हिम्मत करके आगे बढ़ रहे थे । मैंने उनका हाथ पकड़ा और उनके साथ साथ चलने लगा । उनका हाथ पकड़ के सहारा देने में मैं बहुत ही अच्छा महसूस कर रहा था । हम उस जगह पे पहुंचे और रेसोर्ट को देखा । बहुत ही सुंदर जगह पे बनाया हुआ था । जैसे ही ऊपर चारों तरफ़ देखा तो सिर्फ़ पहाड़ और हरियाली ही दिखाई दी । मन कर रहा था क़ि सदा के लिए यहीं प्रकृति की गोद में बस जायें ।
अब वापसी का समय था । मैंने किशन दास का हाथ पकड़ा और उनकी मदद करने लगा । अब उन्हें और ज्यादा दिक्कत हो रही थी क्यूँक़ि ऊपर चढ़ाई काफ़ी मुश्किल थी । एक हाथ से उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और दूसरा हाथ मेरे काँधे पे रखा । बड़ी ही मुश्किल से हम ऊपर पहुंचे गाड़ी तक । मैंने देखा क़ि किशन दास की हालत और ख़राब होती जा रही थी । पता नही मुझे क्या हुआ अचानक और मैंने उस बुजुर्ग किशन दास को गले से लगा लिया और कहा "i luv you. " । मैंने उस समय जो शान्ति अपने दिल में महसूस क़ि वो आज तक की जिंदगी में कभी महसूस नही की थी । वो पल मानों वहीँ ठहर गया हो ...वो असीम शान्ति ...वो सकून ...किशन दास हैरान था और उसकी आंखों से दो आंसू टपक गए । मुझे मेरा जीवन और मेरी ये यात्रा सफल लगने लगी थी । थोड़ी देर वहां विश्राम करने के बाद हमने किशनदास के घर को भी देखा । उसे उसके घर पे ही छोड़ा और मैंने अपना पर्स निकाला और उसमें जितने भी रुपये थे ,बैगर गिने ही किशन दास को दे दिए । फ़िर उससे विदा ले कर हम अपने होटल में आए ।
मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ गई थी :
"किसी के पावं का काँटा
निकाल के तो देखो ,
किसी रोते हुए चेहरे को
हंसा कर के तो देखो ,
अपने से पहले किसी भूखे को
खिला कर के तो देखो ,
किसी हारे थके साथी को
गले से लगा के तो देखो ,
तुम्हारे दिल का दर्द भी कम होगा
किसी के दर्द को कम करके तो देखो ।"
सभी हैरान थे और मैं बस मुस्कुरा रहा था । होटल पहुँच के हम वापसी की तैय्यारी करने लगे थे ।

Tuesday, December 8, 2009

एक सफल यात्रा -3

गाड़ी चल निकली थी अपने सफर की ओर ...सबसे परिचय के बाद मुझे पता करना था क़ि हम जा कहाँ रहे हैं जो क़ि मुझे पता ही नही था अब तक । हम जा रहे हैं ...जागेश्वर , एक छोटा सा गावं हिमालय की गोद में ...उत्तरांचल राज्य में । रात का समय था सबको नींद आ रही थी । मैंने अपनी साइड वाली खिड़की खोली और ठंडी ठंडी हवा लेनी चाही पर रात के इस पहर में भी हवा में दिल्ली का प्रदुषण घुला हुआ था ..मैं ज्यादा देर तक खिड़की खुली नही रख सका। गाड़ी में जगजीत सिंह ,नूरजहाँ की गजलें चल रही थी ...सब धीरे धीरे नींद के आगोश में समां गए । सुबह जैसे ही आँख खुली तो लगा क़ि किसी और हो दुनिया में आ गए हैं । जागेश्वर अभी दूर हैं लेकिन बाहर का नजारा देखने लायक था । चारों तरफ़ पहाड़ ,हरियाली और सामने नीला आकाश । बस एक ही वाक्य मुंह से निकला ' वाह ,प्रकृति का कोई जवाब नही !!' चलते चलते रस्ते में एक झरना दिखा..हमने वहां रुक के चाय बना के पी...खाना बनाने का सब सामान हम साथ ले के ही चले थे । प्रकृति की गोद में ,पर्वतों के बीच ,एक झरने के किनारे पर चाय का मजा और ही था ...चाय पीने के बाद फ़िर से हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले ।
रतन जी मुझसे काफ़ी प्रभावित थे । काफ़ी संघर्ष करके मैंने अपनी मंजिल को पाया...पढ़ लिख के ..उस अन्धकार से निकलकर जहाँ सब कोई कुएं के मेंडक बन के जीते हैं सिर्फ़ । वो बच्चों को पहले ही मेरे बारे में बढ़ा चढ़ा के बता चुके थे । फ़िर बातों का दौर शुरू हुआ ...मैंने देखा क़ि ये बच्चे अपनी भविष्य के प्रति कितने जागरूक हैं और सबके मन में बहुत ही आशाएं और सपने हैं । कोई टीचर बनना चाहता है कोई गणितज्ञ ...तो कोई कवि ... इनसे काफ़ी प्रभावित हुआ मैं और उन्हें गाइड किया उन्हें भविष्य के बारे में । कौन कैसे क्या बन सकता है ...टीचर कैसे बना जाएगा ..इंजिनियर कैसे बना जाएगा ।काफ़ी खुश हुए सभी ...इस के साथ साथ उन की फिलोसोफिकल बातें सुन के मैं हैरान ही रह गया ...रतन जी मुस्कुरा रहे थे मेरी हैरानी पर ...वाकई में कुछ पवित्र आत्माएं इस पवित्र,शुद्ध वातावरण में बड़ी ही आदर्शवादी बातों पर वार्तालाप कर रहे थे ।
शाम के वक्त हम जागेश्वर पहुंचे ...ऊँचे ऊँचे चीड के पेड़ों के बीच छोटा सा गाँव है ये । एक छोटे से होटल में रुकना निश्चित किया गया । शाम होने ही वाली थी ... हम सब फ्रेश हुए और सबका मन हुआ क़ि थोड़ा प्रकृति में घूमा जाए । हम निकल गए मस्त जोगियों की तरह जिनका कोई ठिकाना नही होता है । रात धीरे धीरे होने लगी थी और चीड के पेड़ों से चाँदनी छन कर आ रही था ..मंत्रमुग्ध करने वाला दृश्य था । हम काफ़ी देर तक वहां एक झरने के पास बैठे रहे । सबके अन्दर का मासूम इंसान बाहर आने लगा और कवितायेँ बनने लगी ।
उन बच्चों की कवितायेँ सुन के मुझे अब उनकी प्रतिभा का आभास हो गया था । मैं हैरान था क़ि इतने छोटे बच्चे और इतने उच्च विचार !!!
काफी देर वहां बैठने के बाद हम होटल में आए। खाना बनाया और अगले दिन का प्लान करने लगे ।

Friday, December 4, 2009

एक सफल यात्रा - 2

थोड़ी देर बाद दोबारा से फ़ोन बजा , काम के हालात कुछ सुधरे हुए लगे और मुझे अब थोड़ा सा ध्यान भी आया क़ि फ़ोन बज रहा है । पर अब भी मुझे नही लग रहा था कि मै जा पाउँगा । फ़ोन उठाया तो रतन जी ने दूसरी तरफ से कहा 'क्या लग रहा है ...चल पाओगे ' । उत्तर में मैंने कहा कि कोशिश तो पूरी कर रहा हूँ पर अभी तक फ़ाइनल नही बता सकता हूँ कि चल पाउँगा या नही । रतन जी ने पूछा 'आप एक बात बताइए, आप अगर जाना चाहते हैं तो हम रात भर आपका इंतजार कर सकते हैं , ये मैं पहले भी कह चुका हूँ, अगर आपका मन है और लगता है कि काम १२-१ बजे तक ख़तम हो जाएगा तो भी हम तैयार हैं ' । अब वो इतने प्यार से कह रहे थे कि मैं उन्हें मना नही कर पा रहा था और मैं जाना भी चाहता था ,यह भी सच है । अबकी बार विश्वास भरे शब्दों में उन्हें कहा कि बताता हूँ थोड़ी देर में , क्यूंकि मुझे लग रहा था कि मैं काम को ख़तम कर ही लूँगा १-२ घंटे में । कंप्यूटर के कोने में घड़ी में टाइम देखा तो 8.45 बज गए थे ।
मेरे साथ ही मेरा एक साथी भी था ..मेरे काम करने के बाद उसे देखना था कि काम सही हुआ है या नही । वो टेस्टिंग टीम में है और इंतजार में है कि कब उसकी बारी आए , बड़ी मुश्किल से उसे भी रोके रखा था मैंने ...आख़िरकार ३ दिन की मेहनत रंग लाइ और मेरे मुंह से अनायास ही निकला 'i have done it ..Amit...be ready for your part of work' .. मैं तो ऐसे बोला जैसे कि आइन्स्टीन ने 'यूरेका' शब्द बोला था :) । अब मेरे हिस्से का तो काम लगभग ख़त्म ही हो गया था पर अब देखना था कि अमित जी क्या करते हैं ...
मैंने रतन जी को फ़ोन करके संकेत दिया कि जाना फ़ाइनल हो सकता है , अभी आपको बताता हूँ थोड़ी देर में । वो भी काफ़ी खुश हुए और बोले कि इंतजार में हैं आपके फ़ोन के । अमित भी काम में लगा हुआ था और हम दोनों ने मिलकर लगभग ११ बजे सब कुछ समाप्त कर दिया । मैंने अमित को धन्यवाद बोला और साथ में ही रतन जी को कॉल करके ऑफिस आने के लिए बोल दिया । वहां से ऑफिस का रास्ता लगभग १-१.५ घंटे का था तो वो जल्दी ही घर से निकल लिए । अब मैं ऑफिस में उनके आने का इंतजार कर रहा था और उन्हें वहां तक पहुँचने का रास्ता भी बता रहा था फ़ोन पर ही ।
अभी तक मुझे ये नही पता था कि हम किधर जा रहे हैं ,फ़िर भी मन में एक उत्साह था और इंतजार था अगले ३ दिनों का । लगभग १२.३० पर वो लोग मेरे ऑफिस पहुंचे । मुझे अब तक नही पता था कि इस यात्रा में कौन कौन शामिल है । गाड़ी में बैठे तो रतन जी ने सबसे परिचय करवाया । प्रीती ,ज्योति,नीरू और सुजाता ..ये चारों रतन जी के विधार्थी हैं स्कूल में ...बड़े ही होनहार और छोटी ही उम्र में काव्य प्रतिभा के धनी हैं । उन सबको मेरे बारे में वो पहले ही बता चुके थे , उनके अलावा रतन जी ,ड्राईवर और मैं । काफ़ी हैरान हुआ मैं कि कैसी होने वाली है ये यात्रा ...इन बच्चों के साथ जिन्होंने अभी सिर्फ़ मेट्रिक के इम्तिहान ही दिए हैं ।
क्रमश :